Thursday, March 23, 2017

मेरी पहली कहानी---

                         "सालगिरह"

                     ज़िन्दिगी के उन लम्हों में जब किसी को किसी हमसफ़र की इश्क़ से बढ़कर ज़रूरत होती है जो उसको समझ सके, दर्द बाँट सके, उसकी राहों के काँटे हटा सके, उसे सुन सके, उसके साथ बढ़ती रात के साथ चाँद को पिघलता देख सके फ़िर चाहे वो रौशनदान से अंदर आये अपने-अपने बिस्तर पे अटके हुए चाँद को मोबाइल से साझा करना हो या बादलों से भरी रात में हाथो में हाथ थामे चाँद को ढूँढना...जब नहीं मिलता था न तो उसकी रौशनी में हम बादलों के खिलौनों को साँचे में ढाल के अपने पास रखते थे पता नहीं क्यों तुम्हें लड़कियों वाले खिलौने पसंद ही नहीं थे...

                      ऎसे साथ और तुम्हारे यकीं, इश्क़ और साथ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत जब रही मुझको तब तुम्हारे साथ ने संभाला था उस वक़्त में मेरे साथ चल रही बदनीसीबियों ने साथ नहीं छोड़ा था, जब हर किसी के लिए मैं ऐसी क़िताब बन गया था, जिसके पन्ने कोई भी मन मुताबिक़ पलट सकता था, मोड़ सकता था, फाड़ सकता था, जला भी सकता था और काफ़ी हद तक ऐसा किया भी गया तभी तो कुछ निशान आज भी जिस्म पर मिलते है मेरे। उस वक़्त में ज़माना तोहमतों में पहचानने लगा था मुझको, कोने में पड़े ऎसे खाली गुलदान की तरह जिसमें औरों की नाकमियाँ डाली जाती थी डर-डर के क़दम रखने के बावज़ूद बिगड़े हर काम का ज़िम्मेदार माना जाने लगा था मुझको। एक सवाल जो बरसों तक दिमाग़ में टीसता रहता था क्या कुछ कमी रह गई? न जाने क्यों उन लोगों में कभी शामिल न हो सका जो मजमे का हिस्सा थे। इसी कमी ने सवाली बना छोड़ा था बरसों तक यही सवाल बार-बार हर बार। इसी तरह के अनगिनत सवालों में बिखरे हुए "मैं" ने और जीस्त-ए-तज़ुर्बों ने वो शख़्सियत बनाई जो शायद आज हूँ। क्या हूँ ये तुमसे बेहतर किसे पता है?


                     याद है मुझ बिख़रे को समेटने की ज़िम्मेदारी जब तुमने अपने सर ली तो लगा कि ज़िन्दगी इतनी भी पलट सकती है क्या? जो तुम जैसा बेइन्तहा ख़ूबसूरत, प्यारा और 'सिर्फ मेरा' होकर कोई इंसान ज़िन्दगी में आ सके, मुझे प्यार कर सके, मुझे संवार सके। जो बिल्कुल मेरे जैसा हो, मेरे ज़मीर का वो इश्क़ जो दबा पड़ा था, करोडों दुआओं का फल, आइना मेरी ख़्वाहिशों का, "मेरा अपना" शक़्स। इक राज़ बताऊँ कई सालों तक तो खुद को चिकोटता था और खुद को यक़ीन दिलाने की कोशिश करता था कि तुम हक़ीक़त में हो न जिसने मुझे अपना बनाया। सच कहूँ तो जिस यक़ीन से तुमने तिनका-तिनका जोड़ कर अपनी रूह में एक उम्दा महल बनाया था न जिसमें मुझे पनाह दी, सहारा दिया, इज़्ज़त दी, समर्पण दिया उस साये के बारे में तो बयां भी करना नाकाफ़ी होगा। ज़माने भर के नीम के बाद तुम शहद थीं जो शब् ज़बान पर आते ही मेरी हो जाती थीं। डर रहता था कि तुम्हें कोई रुस्वा न कर दे, बड़ी हिफाज़त से रखता था तुम्हें...याद है?? मेरे लिए इतना हमेशा से काफी था कि "तुम हो", चारों तरफ के वीराने को महसूस कर सुकूँ होता था कि शुक्र है कि "तुम तो हो।"
                     बाक़ी की ज़रूरत क्या थी? और उसको फ़िक्र क्या जिसकी सांस चलती हो और ज़िंदा भी हो। आज के दौर में ये सच में बहुत मुश्किल है, जीने के लिए तुम्हारा हाथ ही तो हाथों में होना था, जो धड़काता था मुझे, स्पंदन देता था, अपने होने पर यक़ीन दिलाता था, और कुछ भी मुझे तुमसे ज़्यादा ज़रूरी कभी नहीं रहा, चाहिए भी क्या था? और जो कुछ ज़रूरी रहा भी वो औरों के लिए, अपनों के लिए रहा। ज़िन्दिगी जीने के लिए अनजानों और दोस्तों की भीड़ की दरकार हमेशा तुम्हें रही मुझे नहीं, मेरे लिए तो दोस्त भी तुम थे और मुहब्बत भी, रूह भी तुम थे और इबादत भी।

                     लेकिन एक वक़्त के बाद तुम खोने से लगे, धुंधले से, जैसे हो भी और मिल भी जाओगे तुममे भीड़ नज़र आने लगी थी, अल्फ़ाज़ों में पराये हो चुके अपने और अपने हो चुके दोस्त और उनकी बातें नज़र आने लगी थी जो लोग मुझे तुम्हारी नज़रों से तोलते थे। जिनके लिए मैं कुछ नहीं था वो मेरे सब कुछ के लिए मुझे निर्धारित करने लगे और हम "हम" से 'मैं' में नज़र आने लगे। तुम इन आस्तीन के साँपो की बीच में फंस चुकी थीं न तुमने निकलने की कोशिश ही की न वो निकलने देने चाहते थे मुक़म्मल और फूल देते रिश्तों को देखना लोगों को सहन नहीं होता ऐसी जलन या जूनून किस काम का था जिसने हमें इस मक़ाम तक पहुँचा मुझे तड़पा कर तुम्हारी आँखों में चमक आने लगी थी और मेरी जाती रही परायों की शह में तुम जो कर रहे थे उसका अंदाज़ा उन्हें था मुझे था पर जिसे होना था वो किसी और नशे में मशग़ूल था.... लोग मुस्कुराने लगे हम दरकने लगे और इन सब में अकेला पड़ा मैं अपने बीमार रिश्ते के इलाज़ में लग गया। हर कोशिश की....हर आख़री से आख़री कोशिश जो ज़बान बंद रखकर की जा सकती थी क्योकि मर्द नस्ल की ये सबसे बड़ी ख़ामी रही है कि हाथों से जब कुछ हमेशा के लिए छूटता है (खासकर दिल के मसलों में) तो वो बुरे से बुरा, ओछा बोलने से भी नहीं चूकता। ...जो मेरे ख़ून में कभी नहीं रहा। तुम उधर पराये होते जा रहे थे इधर मेरा रिश्ता दिन ब दिन बीमार होता जा रहा था दो महीने आई सी यू में भी रहा और ढाई महीने के मामूली सुधार के बाद अचानक दिल का दौरा पड़ने से मेरा रिश्ता मर गया....हाँ साहब सही सुना आपने... नाराज़गी, दोस्ती, बेफ़िक्री और नए की चाहत में पुरान सब राख हो गया। मेरा रिश्ता मर गया और मैं रह गया रूह के बग़ैर ज़िंदा, बिलखता, तड़पता, कसमसाता अब जिस्म की दरारें मुस्कुराहट से छुपानी पड़ती हैं। कुछ सुलगता सा है जो हर पल जला रहा है अंदर कुछ। ज़रा सा हिलने पर कहीं से भी निकल पड़ता है उन सपनों का मवाद जो साथ देखे थे कभी। तेरी छुअन के फफोले अभी वैसे ही हैं न फूटते है न ठीक होते हैं लाख चाहतों के बाद भी कुछ तो है जिसने मरने नहीं दिया शायद वो आसान होता अब तो हर घड़ी मरता हूँ आँख खुलने से बंद होने तक हर आती जाती सांस के साथ... शायद इसे भी कोई इश्क़ कहता होगा...कोई न भी कहे पर मेरे लिए तो ये इश्क़ था, इश्क़ ही है और इश्क़ ही रहेगा जो मेरी रग़ों में बहत्तर बार सर से पाँव तक दौड़ता है...मेरा इश्क़...."मेरा आख़िरी इश्क़।"
                   
    ...बिछड़ने की पहली 'सालगिरह' मुबारक हो "M"....

*पढ़ने के लिए शुक्रिया, सुझाव एवं प्रतिक्रिया आपेक्षित।

Saturday, February 18, 2017

याद तो होगा तुम्हें
जब
मेरे रिश्ते को तुमने
दुधमुहे बच्चे की तरह
ज़िन्दगी की सड़क पर
अकेला छोड़ दिया था
तड़पता हुआ
बिलखता हुआ
किसी ऎसे की तलाश में
जो सीने से लगा ले
कोई बेगाना सा
आकर देखो वो
आज ही वही पड़ा है...
©mkunwarprateek